यह ब्रिटेन का द इंडिपेंडेंट (25 मई 2010 का इश्यू) अखबार है। यह प्रजेंटेशन दिखाता है कि कैसे महत्वपूर्ण इश्यू के सार को सीधे पाठकों को बताया जा सकता है।
हमारे भारत में ऐसे संपादकों का अभाव लगता है जो जनमहत्व के मुद्दों को इतनी सरलता से पाठकों के सामने रख सकें और उन्हें सोचने पर मजबूर कर सकें।
हमें समझना पड़ेगा कि तामझाम वाले ग्राफिक नहीं चाहिए जो पाठक को उलझा कर रख देते हैं।
न चाहिए कास्मेटिक ले आउट डिजाइन।
न चाहिए लंबी-चौड़ी विद्वतापूर्ण कापी या टिप्पणी।
संपादक ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय
सार-सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय
हमारे देश के अखबार खोखला ड्रामा खड़ा करने की कोशिश करते हैं।
डिजाइन और लेआउट से पाठक को चमकृत करने की कोशिश करते हैं।
कंटेंट के नामपर कूड़ा-करकट जो भी मिलता है, बैकग्राउंडर और वैल्यूएडीशन के नाम पर परोसते रहते हैं।
लेकिन असली काम नहीं करते।
यहां दिया गया पहला पेज कितनी सरलता से सरकार की पोल खोल रहा है...न कोई गरिष्ठ शब्दावली, न विद्वान संपादक का गवेषणात्मक भाषण और न मुद्दे को उलझाने वाले झाड़झंखाड़।
हम पत्रकारों को समझना चाहिए कि हमारा काम सीधे-सरल-कम शब्दों में कहानी सुनाना है न कि भारीभरकम डिजाइन व ग्राफिक नाम पर कूड़ाकरकट परोसना।
यह ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाला।
बिलकुल सही कहा आपने। हमारे न्यूज रूम में बैठे महानुभाव यह मानकर चलते हैं कि जो उन्हें अच्छा लग रहा है वही सही है, पाठक तो वह भिखारी है, जिसे कुछ भी दे दो, सब ले लेगा। ऐसे बहुत कम संपादक देखे हैं जो किसी खबर को इसलिए जगह देते हैं क्योकि यह जरूरी है पाठकों के लिए। वरना तो....
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