आजकल आईआरएस 2010 क्यू2 की धूम मची हुई है। हर अखबार इस सर्वे को अपने-अपने हिसाब से व्याख्यायित कर रहा है। सबने अपने अपने यहां इन व्याख्याओं को प्रकाशित किया। कोई एवरेज इश्यू रीडरशिप की बात कर रहा है तो कोई टोटल रीडरशिप की। पाठक का परेशान होना लाजिमी है। लेकिन यहां तो बेचारे पत्रकार और संपादक भी कन्फ्यूज हैं। वे अपने संस्थान की व्याख्या को रटे हुए हैं और इसलिए उनको दूसरों की व्याख्याएं गलत ही नहीं बल्कि हास्यास्पद भी लगती हैं। और इस क्रम में जब वे किसी जानकार आदमी से बात करते हैं तो वे खुद हंसी के पात्र बन जाते हैं। यह बात दीगर है कि वे बेचारे जान भी नहीं पाते कि वे अपनी अल्पज्ञता से हंसी के पात्र बन रहे। दरअसल सामने वाले जानकार की बातें मानने को ये सर्वज्ञ पत्रकार व संपादक तैयार ही नहीं होते और सामने वाला बेचारा चुप हो जाता है इस कहावत पर अमल करते हुए कि यदि आप किसी मूर्ख से बहस करेंगे तो दूसरे लोग यह नहीं जान पाएंगे कि मूर्ख कौन है।
और सबसे गजब कर रही हैं हिंदी की मीडिया साइट्स। ये साइट्स विभिन्न अखबारों में छपी रीडरशिप संबंधी खबरों को जस का तस अपने यहां पेस्ट कर दे रहे हैं। तो कहीं कोई अखबार चार करोड़ की पाठक संख्या वाला दिख रहा हैं तो वहीं वह अपनी खबर में एक करोड़ के आकड़े में बात कर रहा है। है न चकरघिन्नी बना देने वाला मामला।
जरूरी है कि कम से कम ये साइटें तो यह स्पष्ट करें कि एआईआर और टीआर होता क्या है।
आईआरएस कोई ऑब्जेक्टिव अध्ययन जैसा नहां लगता। एक तो आप को डेटा मिलेगा नहीं। आप इसके सदस्य भी तबतक नहीं बन सकते जब तक कि किसी मीडिया हाउस के सदस्य न हों। दूसरे डेटा की किसी एक पद्धति पर आधारित विश्लेषण उपलब्ध नहीं है। जिसे जैसा समझ में आया वैसा विश्लेषण कर रहा है। इससे तो एबीसी की सर्कुलेशन फिगर बेहतर थीं।
ReplyDeleteमीडिया के बारे में कोई राय बनाने के लिए साधन और स्रोत की दशा खराब है। अभी मैने कहीं पढ़ा भास्कर ने कोई डेटा बैंक बनाया हैं, पर मिला नहीं। मीडिया का अध्ययन करने वाला एक भी संस्थान देश में नहीं है।
एआईआर एवरेज इश्यू रीडरशिप का आशय किसी एक अखबार की औसत रोज की रीडरशिप है। टोटल रीडरशिप से आशय है कि किसी ने इस हफ्ते दूसरा अखबार भी देखा है तो उसे एआईआर में जोड़कर जो पाठक संख्या बनती है। यह सर्वे क्या है यह तो इसे बनाने और इसका हवाला देने वाले जानें, पर पिछले दो साल से इसने पाठक संख्या गिरानी शुरू कर दी है। हिन्दी अखबारों का क्षेत्र विस्तार हो रहा है, साक्षरता बढ़ रही है, पर इस सर्वे के हिसाब से पाठक संख्या घट रही है।
सर्वे को रिपोर्ट करने वाले भी गजब हैं। उनकी दिलचस्पी अपने हितों तक सीमित है। मैं आजतक ऐसी एक रिपोर्ट हीं देख पाया जिसमें देश की रीडरशिप, फिर अलग-अलग भाषाओं की रीडरशिप के बारे में बताया गया हो। इससे भ्रम पैदा होता है। शायद सर्वे करने वालों और उसके नाम पर अखबारों का प्रचार करने वालों की दिलचस्पी इन सब बातों में है नहीं।
मेरे अंतिम पैरा के तीसरे वाक्य में रिपोर्ट नहीं देख पाया पढ़ें।
ReplyDeleteसंशोधित वाक्य.... मैं आजतक ऐसी एक रिपोर्ट नहीं देख पाया....